Satyagrah: Premchand Stories in Hindi | सत्याग्रह- Munshi Premchand Stories in Hindi | प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां

Premchand Stories: हिज एक्सेलेंसी वाइसराय बनारस आ रहे थे। सरकारी कर्मचारी, छोटे से बड़े तक, उनके स्वागत की तैयारियां कर रहे थे। इधर कांग्रेस के शहर में हड़ताल मनाने की,सूचना दे दी थी। इससे कर्मचारियों में बड़ी हलचल थी। एक ओर सड़कों पर झंडियां लगाई जा रही थीं, सफाई हो रही थी, पंडाल बन रहा था; दूसरी ओर फौज और पुलिस के सिपाही संगीनें चढ़ाए शहर की गलियों में और सड़कों पर कवायद करते फिरते थे। कर्मचारियों की सिरतोड़ कोशिश थी कि हड़ताल न होने पाए, मगर कांग्रेसियों की धुन थी कि हड़ताल हो और जरूर हो। अगर कर्मचारियों को पशुबल का जोर है, तो हमें नैतिक बल का भरोसा, इस बार दोनों की परीक्षा हो जाय कि मैदान किसके हाथ रहता है।

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घोड़े पर सवार मैजिस्ट्रेट सुबह से शाम तक दूकानदारों को धमकियां देता फिरता कि एक-एक को जेल भिजवा दूंगा, बाजार लुटवा दूंगा, यह करूंगा और वह करूंगा। दूकानदार हाथ बांधकर कहते — हुजूर बादशाह हैं, विधाता हैं, जो चाहें कर सकते हैं। पर हम क्या करें? कांग्रेस वाले हमें जीता न छोड़ेंगे। हमारी दूकानों पर धरने देंगे, हमारे ऊपर बाल बढ़ाएंगे, कुएं में गिरेंगे, उपवास करेंगे। कौन जाने, दो-चार प्राण ही दे दें, तो हमारे मुंह पर सदैव के लिए कालिख पुत जायगी। हुजूर उन्हीं कांग्रेस वालों को समझाएं, तो हमारे ऊपर बड़ा एहसान करें। हड़ताल न करने से हमारी कुछ हानि थोड़े ही होगी। देश के बड़े-बड़े आदमी आवेंगे, हमारी दूकानें खुली रहेंगी, तो एक के दो लेंगे, महंगे सौदे बेचेंगे; पर करें क्या इन शैतानों से कोई बस नहीं चलता।

राय हरनन्दन साहब, राजा लालचन्द और खां बहादुर मौलवी महमूदअली तो कर्मचारियों से भी ज्यादा बेचैन थे। मैजिस्ट्रेट के साथ-साथ और अकेले भी बड़ी कोशिश करते थे। अपने मकान पर बुलाकर दूकानदारों को समझाते, अनुनय-विनय करते, आंखें दिखाते, इक्के बग्घीवालों को धमकाते, मजदूरों की खुशामद करते; पर कांग्रेस के मुट्ठी भर आदमियों का कुछ ऐसा आतंक छाया हुआ था कि कोई इनकी सुनता ही न था। यहां तक कि पड़ोस की कुंजड़िन ने भी निर्भय होकर कह दिया-हुजूर, चाहे मार डालो, पर दूकान न खुलेगी। नाक न कटवाऊंगी। सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि कहीं पंडाल बनाने वाले मजदूर, बढ़ई, लोहार वगैरह काम न छोड़ दें, नहीं तो अनर्थ ही हो जायगा। राय साहब ने कहा — हुजूर, दूसरे शहरों से दूकानदार बुलवाएं और एक बाजार अलग खोलें।

खां साहब ने फरमाया-वक्त इतना कम रह गया है कि दूसरा बाजार तैयार नही हो सकता। हुजूर कांग्रेसवालों को गिरफ्तार कर लें, या उनकी जायदाद जब्त कर लें, फिर देखिए कैसे काबू में नहीं आते !

राजा साहब बोले — पकड़-धकड़ से तो लोग और झल्लाएंगे। कांग्रेस से हुजूर कहें कि तुम हड़ताल बन्द कर दो, तो सबको सरकारी नौकरी दे दी जायगी। उसमें अधिकांश बेकार लोग भरे पड़े हैं, यह प्रलोभन पाते ही फूल उठेंगे।

मगर मैजिस्ट्रेट को कोई राय न जंची। यहां तक कि वाइसराय के आने में तीन दिन और रह गए।

आखिर राजा साहब को एक युक्ति सूझी। क्यों न हम लोग भी नैतिक बल का प्रयोग करें ? आखिर कांग्रेसवाले धर्म और नीति के नाम पर ही तो यह तूमार बांधते हैं। हम लोग भी उन्हीं का अनुकरण करें, शेर को उसकी मांद में पछाड़ें। कोई ऐसा आदमी पैदा करना चाहिए, तो व्रत करे कि दूकानें न खुलीं, तो मैं प्राण दे दूंगा। यह जरूरी है कि वह ब्राह्मण हो और ऐसा, जिसको शहर के लोग मानते हों, आदर करते हों। अन्य सहयोगियों के मन में भी यह बात बैठ गई। उछल पड़े। राय साहब ने कहा — बस, अब पड़ाव मार लिया। अच्छा, ऐसा कौन पंडित है, पंडित गदाधर शर्मा ?

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राजा- जी नहीं, उसे कौन मानता है? खाली समाचार-पत्रों में लिखा करता है। शहर के लोग उसे क्या जानें ?

राय साहब- दमड़ी ओझा तो है इस ढंग का ?

राजा- जी नहीं, कॉलेज के विद्यार्थियों के सिवा उसे और कौन जानता है?

राय साहब- पंडित मोटेराम शास्त्री ?

राजा- बस, बस। आपने खूब सोचा। बेशक वह है इस ढंग का। उसी को बुलाना चाहिए। विद्वान् है, धर्म-कर्म से रहता है। चतुर भी है। वह अगर हाथ में आ जाए, तो फिर बाजी हमारी है।

राय साहब ने तुरन्त पंडित मोटेराम के घर सन्देशा भेजा। उस समय शास्त्रीजी पूजा पर थे। यह पैगाम सुनते ही जल्दी से पूजा समाप्त की और चले। राजा साहब ने बुलाया। है, धन्य भाग! धर्मपत्नी से बोले- आज चन्द्रमा कुछ बली मालूम होते हैं। कपड़े लाओ, देखूं, क्यों बुलाया है ?

स्त्री ने कहा- भोजन तैयार है, करते जाओ; न जाने कब लौटने का अवसर मिले।

किन्तु शास्त्रीजी ने आदमी को इतनी देर खड़ा रखना उचित न समझा। जाड़े के दिन थे। हरी बनात की अचकन पहनी, जिस पर लाल शंजाफ लगी हुई थी। गले में एक जरी दुपट्टा डाला। फिर सिर पर बनारसी साफा बांधा। लाल चौड़े किनारे की रेशमी धोती पहनी, और खड़ाऊं पर चले। उनके मुख से ब्रह्मतेज टपकता था। दूर ही से मालूम होता था कि कोई महात्मा आ रहे हैं। रास्ते में जो मिलता, सिर झुकाता; कितने ही दूकानदारों ने खड़े होकर पैलगी की। आज काशी का नाम इन्हीं की बदौलत चल रहा है, नहीं तो और कौन रह गया है? कितना नम्र स्वभाव है। बालकों से हंसकर बातें करते हैं। इस ठाट से पंडित जी राजा साहब के मकान पर पहुंचे। तीनों मित्रों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया। खां बहादुर बोले-कहिए पंडितजी, मिजाज तो अच्छे हैं? वल्लाह आप नुमाइश में रखने के काबिल आदमी हैं। आपका वजन तो दस मन से कम न होगा?

राय साहब- एक मन इल्म के लिए दस मन अक्ल चाहिए। उसी कायदे से एक मन अक्ल के लिए दस मन का जिस्म जरूरी है, नहीं तो उसका बोझा कौन उठाए ?

राजा साहब- आप लोग इसका मतलब नहीं समझ सकते। बुद्धि एक प्रकार का नजला हैं, जब दिमाग में नहीं समाती, तो जिस्म में आ जाती है।

खां साहब- मैंने तो बुजुर्गों की जबानी सुना है कि मोटे आदमी अक्ल के होते हैं।

राय साहब- आपका हिसाब कमजोर था, वरना आपकी समझ में इतनी बात जरूर आ जाती कि जब अक्ल और जिस्म में 1 और 10 की निस्बत है, तो जितना ही मोटा आदमी होगा, उतना ही उसकी अक्ल का वजन भी ज्यादा होगा।

राजा साहब-इससे यह साबित हुआ कि जितना ही मोटा आदमी, उतनी ही मोटी उसकी अक्ल।

मोटेराम-जब मोटी अक्ल की बदौलत राज दरबार में पूछ होती है, तो मुझे पतली अक्ल लेकर क्या करना है!

हास-परिहास के बाद राजा साहब ने वर्तमान समस्या पंडितजी के सामने उपस्थित की और उसके निवारण का जो उपाय सोचा था, वह भी प्रकट किया! बोले- बस, यह समझ लीजिए कि इस साल आपका भविष्य पूर्णतया अपने हाथों में हैं। शायद किसी आदमी को अपने भाग्य निर्णय का ऐसा महत्त्वपूर्ण अवसर न मिला होगा। हड़ताल न हुई, तो और तो कुछ नहीं कह सकते, आपको जीवन भर किसी के दरवाजे जाने की जरूरत न होगी। बस, ऐसा कोई व्रत ठानिए कि शहरवाले थर्रा उठें। कांग्रेस वालों ने धर्म की आड़ लेकर इनकी शक्ति बढ़ाई है। बस, ऐसी कोई युक्ति निकालिए कि जनता के धार्मिक भावों को चोट पहुंचे।

मोटेराम ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया- यह तो कोई ऐसा कठिन काम नहीं है। मैं तो ऐसे-ऐसे अनुष्ठान कर सकता हूं कि आकाश से जल की वर्षा करा दूं; मरी के प्रकोप को भी शान्त कर दूं, अन्न का भाव घटा-बढ़ा दूं। कांग्रेस वालों को परास्त कर देना तो कोई बड़ी बात नहीं। अंग्रेजी पढ़े-लिखे महानुभाव समझते हैं कि जो काम हम कर सकते हैं, वह कोई नहीं कर सकता। पर गुप्त विद्याओं का उन्हें ज्ञान ही नहीं ।

खां साहब-तब तो जनाब, यह कहना चाहिए कि आप दूसरे खुदा हैं। हमें क्या मालूम था कि आप में कुदरत है; नहीं तो इतने दिनों तक क्यों परेशान होते ?

मोटेराम- साहब, मैं गुप्त धन का पता लगा सकता हूं, पितरों को बुला सकता हूँ. केवल गुण-ग्राहक चाहिए। संसार में गुणियों का अभाव नहीं, गुणज्ञों का ही अभाव है- गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है।

राजा- भला, इस अनुष्ठान के लिए आपको क्या भेंट करना होगा ?

मोटेराम- जो कुछ आपकी श्रद्धा हो।

राजा- कुछ बतला सकते हैं कि यह कौन-सा अनुष्ठान होगा ?

मोटेराम-अनशत व्रत के साथ मन्त्रों का जप होगा। सारे शहर में हलचल न मचा दूं तो मोटेराम नाम नहीं!

राजा- तो फिर कब से ?

मोटेराम-आज ही हो सकता है। हां, पहले देवताओं के आवाहन के निमित्त थोड़े से रुपये दिला दीजिए।

रुपये की कमी ही क्या थी? पंडितजी को रुपये मिल गए और वह खुश-खुश घर आये। धर्मपत्नी से सारा समाचार कहा। उसने चिन्तित होकर कहा- तुमने नाहक यह रोग अपने सिर लिया! भूख न बरदाश्त हुई, तो ? सारे शहर में भद्द हो जायगी, लोग हंसी उड़ावेंगे। रुपये लौटा दो।

मोटेराम ने आश्वासन देते हुए कहा- भूख कैसे न बरदाश्त होगी? मैं ऐसा मूर्ख थोड़े ही हूं कि यों ही जा बैठूंगा। पहले मेरे भोजन का प्रबन्ध करो अमृतियाँ, लड्डू, रसगुल्ले मंगाओ। पेट भर भोजन कर लूं। फिर आध सेर मलाई खाऊंगा, उसके ऊपर आध सेर बादाम की तह जमाऊंगा। बची-खुची कसर मलाईवाले दही से पूरी कर दूंगा। फिर देखूंगा, भूख क्योंकर पास फटकती है ? तीन दिन तक तो सांस ही न ली जायगी, भूख की कौन चलावे। इतने में तो सारे शहर में खलबली मच जायगी। भाग्य-सूर्य उदय हुआ है, इस समय आगा-पीछा करने से पछताना पड़ेगा। बाजार न बन्द हुआ, तो समझ लो मालामाल हो जाऊंगा; नहीं तो यहां गांठ से क्या जाता है! सौ रुपये तो हाथ लग ही गए।

इधर तो भोजन का प्रबन्ध हुआ, उधर पंडित मोटेराम ने डौंड़ी पिटवा दी कि संध्या-समय टाउनहाल के मैदान में पंडित मोटेराम देश की राजनीतिक समस्या पर व्याख्यान देंगे, लोग अवश्य आएं। पंडितजी सदैव राजनीतिक विषयों से अलग रहते थे। आज वह इस विषय पर कुछ बोलेंगे, सुनना चाहिए। लोगों को उत्सुकता हुई। पंडितजी का शहर में बड़ा मान था। नियत समय पर कई हजार आदमियों की भीड़ लग गई। पंडितजी घर से अच्छी तरह तैयार होकर पहुंचे। पेट इतना भरा था कि चलना कठिन था । ज्यों ही यह वहां पहुंचे, दर्शकों ने खड़े होकर इन्हें साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया।

मोटेराम बोले- नगरवासियो, व्यापारियो, सेठो और महाजनो! मैंने सुना है, तुम लोगों ने कांग्रेसवालों के कहने में आकर बड़े लाट साहब के शुभागमन के अवसर पर हड़ताल करने का निश्चय किया है। यह कितनी बड़ी कृतघ्नता है? वह चाहें, तो आज तुम लोगों को तोप के मुंह पर उड़वा दें, सारे शहर को खुदवा डालें। राजा हैं, हंसी-ठट्ठा नहीं । वह तरह देते जाते हैं, तुम्हारी दीनता पर दया करते हैं और तुम गउओं की तरह हत्या के बल खेत चरने को तैयार हो ! लाट साहब चाहें तो आज रेल बन्द कर दें। डाक बन्द कर दें, माल का आना-जाना बन्द कर दें। तब बताओ, क्या करोगे? वह चाहें तो आज सारे शहरवालों को जेल में डाल दें, बताओ, क्या करोगे ? तुम उनसे भागकर कहां जा सकते हो? है कहीं ठिकाना ? इसलिए जब इस देश में और उन्हीं के अधीन रहना है, तो इतना उपद्रव क्यों मचाते हो? याद रखो, तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। ताऊन के कीड़े फैला दें, तो सारे नगर में हाहाकार मच जाय। तुम झाड़ू से आंधी को रोकने चले हो? खबरदार, जो किसी ने बाजार बन्द किया, नहीं तो कह देता हूं, यहीं अन्न-जल बिना प्राण दे दूंगा।

एक आदमी ने शंका की महाराज, आपके प्राण निकलते-निकलते महीने भर से कम न लगेगा। तीन दिनों में क्या होगा ?

मोटेराम ने गरजकर कहा — प्राण शरीर में नहीं रहता, ब्रह्मांड में रहता है। मैं चाहूं तो योगबल से अभी प्राण त्याग कर सकता हूं। मैंने तुम्हें चेतावनी दे दी, अब तुम जानों, तुम्हारा काम जाने। मेरा कहना मानोगे, तो तुम्हारा कल्याण होगा। न मानोगे, हत्या लगेगी, संसार में कहीं मुंह न दिखला सकोगे। बस, यह लो, मैं यहीं आसन जमाता हूं।

शहर में यह समाचार फैला, तो लोगों के होश उड़ गए। अधिकारियों की इस नई चाल ने उन्हें हतबुद्धि सा कर दिया। कांग्रेस के कर्मचारी तो अब भी कहते थे कि यह सब पाखंड है। राजभक्तों ने पंडित को कुछ दे दिलाकर यह स्वांग खड़ा किया है। जब और कोई बस न चला, फौज, पुलिस, कानून सभी युक्तियों से हार गए, तो यह नई माया रची है। यह और कुछ नहीं, राजनीति का दिवाला है। नहीं पंडितजी ऐसे कहां के देश- सेवक थे, जो देश की दशा से दुःखी होकर व्रत ठानते? इन्हें भूखों मरने दो, दो दिन में बोल जाएंगे। इस नई चाल की जड़ अभी से काट देनी चाहिए! कहीं यह चाल सफल हो गई, तो समझ लो, अधिकारियों के हाथ में एक नया अस्त्र आ जायगा और वह सदैव इसका प्रयोग करेंगे। जनता इतनी समझदार तो है नहीं कि इन रहस्यों को समझे। गीदड़-भभकी में आ जायगी।

लेकिन नगर के बनिये-महाजन, जो प्रायः धर्म-भीरु होते हैं, ऐसे घबरा गए कि उन पर इन बातों का कुछ असर ही न होता था। वे कहते थे- साहब, आप लोगों के कहने से सरकार से बुरे बने, नुकसान उठाने को तैयार हुए, रोजगार छोड़ा, कितनों के दिवाले हो गए, अफसरों को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। पहले जाते थे, अधिकारी लोग ‘आइए सेठजी’ कहकर सम्मान करते थे; अब रेलगाडियों में धक्के खाते हैं, पर कोई नहीं सुनता; आमदनी चाहे कुछ हो या न हो, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स) बढ़ा दिया जाता है। यह सब सहा, और सहेंगे, लेकिन धर्म के मामले में हम आप लोगों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते। जब एक विद्वान्, कुलीन, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्योंकर भोजन करके टांगे फैलाकर सोएं ? कहीं मर गया, तो भगवान् के सामने क्या जवाब देंगे ?

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सारांश यह कि कांग्रेसवालों की एक न चली। व्यापारियों का एक डेपुटेशन 9 बजे रात को पंडितजी की सेवा में उपस्थित हुआ। पंडितजी ने आज भोजन तो खूब डटकर किया था, लेकिन डटकर भोजन करना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। महीने में प्राय: 20 दिन वह अवश्य ही न्योता पाते थे और निमंत्रण में डटकर भोजन करना एक स्वाभाविक बात है। अपने सहभोजियों की देखा-देखी, लाग डांट की धुन में, या गृह स्वामी के सविनय आग्रह से और सबसे बढ़कर पदार्थों की उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो ही जाता है। पंडितजी की जठराग्नि ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होती रहती थी। अतएव इस समय भोजन का समय आ जाने से उनकी नीयत कुछ डांवाडोल हो रही थी। यह बात नहीं कि वह भूख से व्याकुल थे। लेकिन भोजन का समय आ जाने पर अगर पेट अफरा हुआ न हो, अजीर्ण न हो गया हो, तो मन में एक प्रकार की भोजन की चाह होने लगती है।

शास्त्रीजी की इस समय यही दशा हो रही थी। जी चाहता था, किसी खोंचे वाले को पुकारकर कुछ ले लेते, किन्तु अधिकारियों ने उनकी शरीर-रक्षा के लिए वहां कई सिपाहियों को तैनात कर दिया था। वे सब हटने का नाम न लेते थे। पंडितजी की विशाल बुद्धि इस समय यही समस्या हल कर रही थी कि इन यमदूतों को कैसे टालूं ? खामख्वाह इन पाजियों को यहां खड़ा कर दिया! मैं कोई कैदी तो हूं नहीं कि भाग जाऊंगा।

अधिकारियों ने शायद वह व्यवस्था इसलिए कर रखी थी कि कांग्रेस वाले जबरदस्ती पंडितजी को वहां से भगाने की चेष्टा न कर सकें। कौन जाने, वे क्या चाल चलें। ऐसे अनुचित और अपमानजनक व्यवहारों से पंडितजी की रक्षा करना अधिकारियों का कर्त्तव्य था।

वह अभी इस चिन्ता में थे कि व्यापारियों का डेपुटेशन आ पहुंचा। पंडितजी कुहनियों के बल लेटे हुए थे, संभल बैठे नेताओं ने उनके चरण छूकर कहा- महाराज, हमारे ऊपर आपने क्यों यह कोप किया है? आपकी जो आज्ञा हो, वह हम शिरोधार्य करें। आप उठिए, अन्न-जल ग्रहण कीजिए। हमें नहीं मालूम था कि आप सचमुच यह व्रत ठाननेवाले हैं; नहीं तो हम पहले ही आपसे विनती करते। आप कृपा कीजिए, दस बजने का समय है। हम आपका वचन कभी न टालेंगे।

मोटेराम-ये कांग्रेसवाले तुम्हें मटियामेट करके छोड़ेंगे ! आप तो डूबते ही हैं; तुम्हें भी अपने साथ ले डूबेंगे! बाजार बन्द रहेगा, तो इससे तुम्हारा ही टोटा होगा; सरकार को क्या? तुम नौकरी छोड़ दोगे, आप भूखों मरोगे; सरकार को क्या ? तुम जेल जाओगे, आप चक्की पीसोगे; सरकार को क्या ? न जाने इन सबको क्या सनक सवार हो गई है। कि अपनी नाक काटकर दूसरों का असगुन मनाते हैं। तुम इन कुपन्थियों के कहने में न आओ। क्यों दूकानें खुली रखोगे ?

सेठ- महाराज, जब तक शहर-भर के आदमियों की पंचायत न हो जाय, तब तक हम इसका बीमा कैसे ले सकते हैं! कांग्रेसवालों ने कहीं लूट मचवा दी, तो कौन हमारी मदद करेगा? आप उठिए, भोजन पाइए, हम कल पंचायत करके आपकी सेवा में जैसा कुछ होगा, हाल देंगे।

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