Nairashy Leela: Premchand Stories in Hindi | नैराश्य लीला Munshi Premchand Stories in Hindi| प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां

Premchand Stories: पंडित हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्मानित पुरुष थे। धनवान् तो नहीं, लेकिन खाने-पीने से खुश थे। कई मकान थे, उन्हीं के किराये पर गुजर होता था। इधर किराये बढ़ गए थे, जिससे उन्होंने अपनी सवारी भी रख ली थी। बहुत विचारशील आदमी थे, अच्छी शिक्षा पायी थी, संसार का काफी तजुरबा था; पर क्रियात्मक शक्ति से वंचित थे, सब-कुछ न जानते थे। समाज उनकी आंखों में एक भयंकर भूत था, जिससे सदैव डरते रहना चाहिए। उसे जरा भी रुष्ट किया, तो फिर जान की खैर नहीं। उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रतिबिम्ब थी, पति के विचार उसके विचार और पति की इच्छा उसकी इच्छा थी। दोनों प्राणियों में कभी मतभेद न होता था। जागेश्वरी शिव उपासक थी, हृदयनाथ वैष्णव थे, पर दान और व्रत में दोनों को समान श्रद्धा थी। दोनों धर्मनिष्ठ थे, उससे कहीं अधिक जितना सामान्यतः शिक्षित लोग हुआ करते हैं। इसका कदाचित् यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई सन्तान न थी। उसका विवाह तेरहवें वर्ष में हो गया था और माता-पिता को अब यही लालसा थी कि भगवान् इसे पुत्रवती करें, तो हम लोग नवासे के नाम अपना सब कुछ लिख-लिखाकार निश्चिन्त हो जाएं।

premchand stories in hindi, नैराश्य लीला: मुंशी प्रेमचंद कहानी

किन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। कैलासकुमारी का अभी गौना भी न हुआ था, वह अभी तक यह भी न जानने पाई थी कि विवाह का आशय क्या है, कि उसका सोहाग उठ गया। वैधव्य ने उसके जीवन की अभिलाषाओं का दीपक बुझा दिया।

माता और पिता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम मचा हुआ था; पर कैलासकुमारी भौचक्की हो-होकर सबके मुंह की ओर ताकती थी। उसकी समझ ही में न आता था कि यह लोग रोते क्यों हैं? मां-बाप की इकलौती बेटी थी। मां-बाप के अतिरिक्त वह किसी तीसरे व्यक्ति को अपने लिए आवश्यक न समझती थी। उसकी सुख कल्पनाओं में अभी पति का प्रवेश न हुआ था। वह समझती थी, स्त्रियां पति के मरने पर इसीलिए रोती हैं कि वह उनका और उनके बच्चों का पालन करता है। मेरे घर में किस बात की कमी है? मुझे इसकी क्या चिन्ता है कि खाएंगे क्या, पहनेंगे क्या ? मुझे जिस चीज की जरूरत होगी, बाबूजी तुरन्त ला देंगे; अम्मां से जो चीज मांगूंगी, वह दे देंगी। फिर रोऊं क्यों? वह अपनी मां को रोते देखती तो रोती, पति के शोक से नहीं, मां के प्रेम से। कभी सोचती, शायद यह लोग इसलिए रोते हैं कि कहीं मैं कोई चीज न मांग बैठूं जिसे वह दे न सकें। तो मैं ऐसी चीज मांगूंगी ही क्यों? मैं अब भी तो उनसे कुछ नहीं मांगती, वह आप ही मेरे लिए एक न एक चीज नित्य लाते रहते हैं। क्या मैं अब कुछ और हो जाऊंगी ?

इधर माता का यह हाल था कि बेटी की सूरत देखते ही आंखों से आंसू की झड़ी लग जाती। बाप की दशा और भी करुणाजनक थी। घर में आना-जाना छोड़ दिया। सिर पर हाथ धरे कमरे में अकेले उदास बैठे रहते। उसे विशेष दुःख इस बात का था कि सहेलियां भी अब उसके साथ खेलने न आतीं। उसने उनके घर जाने की माता से आज्ञा मांगी, तो वह फूट-फूटकर रोने लगीं। माता-पिता की यह दशा देखी, तो उसने उनके सामने जाना छोड़ दिया: बैठी किस्से-कहानियां पढ़ा करती। उसकी एकान्तप्रियता का मां-बाप ने कुछ और ही अर्थ समझा। लड़की शोक के मारे घुली जाती है, इस वज्राघात ने उनके हृदय को टुकड़े-टुकड़े कर डाला है।

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एक दिन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा- जी चाहता है, घर छोड़कर कहीं भाग जाऊं। इसका कष्ट अब नहीं देखा जाता।

जागेश्वरी-मेरी तो भगवान् से यही प्रार्थना है कि मुझे संसार से उठा लें। कहां तक छाती पर पत्थर की सिल रखूं।

हृदयनाथ — किसी भांति इसका मन बहलाना चाहिए, जिसमें शोकमय विचार आने ही न पाएं। हम लोगों को दुःखी और रोते देखकर उसका दुःख और भी दारुण हो जाता है।

जागेश्वरी — मेरी तो बुद्धि कुछ काम नहीं करती।

हृदयनाथ- हम लोग यों ही मातम करते रहे, तो लड़की की जान पर बन जायगी। अब कभी-कभी उसे लेकर सैर करने चली जाया करो। कभी-कभी थिएटर दिखा दिया, कभी घर में गाना-बजाना करा दिया। इन बातों से उसका दिल बहलता रहेगा।

जागेश्वरी — मैं तो उसे देखते ही रो पड़ती हूं। लेकिन अब जब्त करूंगी। तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। बिना दिल बहलाव के उसका शोक न दूर होगा।

हृदयनाथ- मैं भी अब उससे दिल बहलानेवाली बातें किया करूंगा। कल एक सैरबी लाऊंगा, अच्छे-अच्छे दृश्य जमा करूंगा। ग्रामोफोन तो आज ही मंगवाए देता हूं’ बस, उसे हर वक्त किसी न किसी काम में लगाए रहना चाहिए। एकान्तवास शोक-ज्वाला के लिए समीर के समान है।

उस दिन से जागेश्वरी ने कैलासकुमारी के लिए विनोद और प्रमोद के सामान जमा करने शुरू किए। कैलासी मां के पास आती तो उसकी आंखों में आंसू की बूंदें न देखती, होंठों पर हंसी की आभा दिखाई देती। वह मुस्कराकर कहती-बेटी, आज थिएटर में बहुत अच्छा तमाशा होने वाला है। चलो, देख आएं। कभी गंगा-स्नान की ठहरती, वहां मां-बेटी किश्ती पर बैठकर नदी में जल-विहार करतीं, कभी दोनों सन्ध्या-समय पार्क की ओर चली जातीं। धीरे-धीरे सहेलियां भी आने लगीं। कभी सबकी सब बैठकर ताश खेलतीं, कभी गाती- बजाती। पंडित हृदयनाथ ने भी विनोद की सामग्रियां जुटायीं। कैलासी को देखते ही मग्न होकर बोलते-बेटी आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य दिखाऊं; कभी कहते, आओ आ स्विट्जरलैंड की अनुपम झांकी और झरनों की छटा देखें; कभी ग्रामोफोन-बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब आनन्द उठाती। इतने सुख से उसके दिन कभी न गुजरे थे।

इस भांति दो वर्ष बीत गए। कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आदी हो गई कि एक दिन भी थिएटर न जाती, तो बेकल-सी होने लगती। मनोरंजन नवीनता का दास है और समानता का शत्रु । थिएटरों के बाद सिनेमा की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के तमाशों की । ग्रामोफोन के नए रिकॉर्ड आने लगे। संगीत का चस्का पड़ गया। बिरादरी में कहीं उत्सव होता तो मां-बेटी अवश्य जातीं। कैलासी नित्य इसी नशे में डूबी “रहती, चलती तो कुछ गुनगुनाती हुई, किसी से बातें करती तो वही थिएटर और सिनेमा की। भौतिक संसार से अब उसे कोई वास्ता न था, अब उसका निवास कल्पना-संसार में था। दूसरे लोक की निवासिनी होकर उसे प्राणियों से कोई सहानुभूति न रही, किसी के दुःख पर जरा दया न आती। स्वभाव में उच्छृंखलता का विकास हुआ, अपनी सुरुचि पर गर्व करने लगी। सहेलियों से डींगें मारती, यहां के लोग मूर्ख हैं, यह सिनेमा की कद्र क्या करेंगे। इसकी कद्र तो पश्चिम के लोग करते हैं। वहां मनोरंजन की सामग्रियां उतनी ही आवश्यक हैं, जिनती हवा। जभी तो वे उतने प्रसन्न-चित्त रहते हैं, मानो किसी बात की चिन्ता ही नहीं। यहां किसी को इसका रस ही नहीं। जिन्हें भगवान् ने सामर्थ्य भी दिया है, वह भी सरेशाम से मुंह ढांककर पड़ रहते हैं। सहेलियां कैलासी की यह गर्वपूर्ण बातें सुनतीं और उसकी और भी प्रशंसा करतीं। वह उनका अपमान करने के आवेग में आप ही हास्यास्पद बन जाती थी।

पड़ोसियों में इन सैर-सपाटों की चर्चा होने लगी। लोक-सम्मति किसी की रिआयत नहीं करती। किसी ने सिर पर टोपी टेढ़ी रखी और पड़ोसियों की आंखों में खुबा, कोई जरा अकड़कर चला और पड़ोसियों ने आवाजें कसीं। विधवा के लिए पूजा-पाठ है तीर्थ-व्रत है, मोटा खाना है, मोटा पहनना है; उसे विनोद और विलास, राग और रंग की क्या ज़रूरत ? विधाता ने उसके सुख के द्वार बन्द कर दिए हैं। लड़की प्यारी सही, लेकिन शर्म और हया भी तो कोई चीज है! जब मां-बाप ही उसे सिर चढ़ाए हुए हैं, तो उसका क्या दोष? मगर एक दिन आंखें खुलेंगी अवश्य। महिलाएं कहतीं, बाप तो मर्द है, लेकिन मां कैसी है, उसको जरा भी विचार नहीं कि दुनिया क्या कहेगी। कुछ उन्हीं की एक दुलारी बेटी थोड़े ही है, इस भांति मन बढ़ाना अच्छा नहीं।

कुछ दिनों तक तो यह खिचड़ी आपस में पकती रही। अन्त को एक दिन कई महिलाओं ने जागेश्वरी के घर पदार्पण किया। जागेश्वरी ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एक महिला बोली- महिलाएं रहस्य की बातें करने में बहुत अभ्यस्त होती हैं-बहन, तुम्हीं मजे में हो कि हंसी-खुशी में दिन काट देती हो। हमें तो दिन पहाड़ हो जाता है। न कोई काम न धंधा, कोई कहां तक बातें करे ?

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दूसरी देवी ने आंखें मटकाते हुए कहा-अरे, तो यह तो बदे की बात है। सभी के दिन हंसी-खुशी में करें, तो रोए कौन! यहां तो सुबह से शाम तक चक्की-चूल्हे ही से छुट्टी नहीं मिलती; किसी बच्चे को दस्त आ रहे हैं, तो किसी को ज्वर चढ़ा हुआ है; कोई मिठाइयों की रट लगा रहा है, तो कोई पैसों के लिए महनामथ मचाए हुए है। दिन भर हाय-हाय करते बीत जाता है। सारे दिन कठपुतलियों की भांति नाचती रहती हूं।

तीसरी रमणी ने इस कथन का रहस्यमय भाव से विरोध किया-बदे की बात नहीं, वैसा दिल चाहिए। तुम्हें तो कोई राजसिंहासन पर बिठा दे तब भी तस्कीन न होगी। अब और भी हाय-हाय करोगी।

इस पर एक वृद्ध ने कहा — नौज ऐसा दिल! यह भी कोई दिल है कि घर में चाहे आग लग जाय, दुनिया में कितना ही उपहास हो रहा हो, लेकिन आदमी अपने राग-रंग में मस्त रहे। वह दिल है कि पत्थर! हम गृहिणी कहलाती हैं, हमारा काम है अपनी गृहस्थी में र रहना। आमोद-प्रमोद में दिन काटना हमारा काम नहीं।

और महिलाओं ने इस निर्दय व्यंग्य पर लज्जित होकर सिर झुका लिया। वे जागेश्वरी की चुटकियां लेना चाहती थीं, उसके साथ बिल्ली और चूहे की निर्दय क्रीड़ा करना चाहती थीं। आहत को तड़पाना उनका उद्देश्य था। इस खुली हुई चोट ने उनके पर-पीड़न- प्रेम के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ी; किन्तु जागेश्वरी को ताड़ना मिल गई। स्त्रियों के विदा होने के बाद उसने जाकर पति से यह सारी कथा सुनायी। हृदयनाथ उन पुरुषों में न थे, जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आत्मिक स्वाधीनता का स्वांग भरते हैं, हठधर्मी को आत्म-स्वातंत्र्य के नाम से छिपाते हैं। वह सचिन्त भाव से बोले- तो अब क्या होगा ?

जागेश्वरी — तुम्हीं कोई उपाय सोचो।

हृदयनाथ- पड़ोसियों ने जो आक्षेप किया, वह सर्वथा उचित है। कैलासकुमारी के स्वभाव में मुझे एक विचित्र अन्तर दिखाई दे रहा है। मुझे स्वयं ज्ञात हो रहा है कि उसके मनबहलाव के लिए हम लोगों ने जो उपाय निकाला है, वह मुनासिब नहीं है। उनका यह कथन सत्य है कि विधवाओं के लिए यह आमोद-प्रमोद वर्जित है। अब हमें यह परिपाटी छोड़नी पड़ेगी।

जागेश्वरी-लेकिन कैलासी तो इन खेल-तमाशों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती।

हृदयनाथ- उसकी मनोवृत्तियों को बदलना पड़ेगा।

शनैः-शनैः यह विलासोन्माद शान्त होने लगा। वासना का तिरस्कार किया जाने लगा। पंडित जी सन्ध्या समय ग्रामोफोन न बजाकर कोई धर्मग्रन्थ पढ़कर सुनाते। स्वाध्याय, संयम, उपासना में मां-बेटी रत रहने लगीं। कैलासी को गुरुजी ने दीक्षा दी, मुहल्ले और बिरादरी की स्त्रियां आयीं, उत्सव मनाया गया।

मां-बेटी अब किश्ती पर सैर करने के लिए गंगा न जातीं, बल्कि स्नान करने के लिए। मन्दिरों में नित्य जातीं। दोनों एकादशी का निर्जल व्रत रखने लगीं। कैलासी को गुरुजी नित्य सन्ध्या-समय धर्मोपदेश करते। कुछ दिनों तक तो कैलासी को यह विचार परिवर्तन बहुत कष्टजनक मालूम हुआ; पर धर्मनिष्ठा नारियों का स्वाभाविक गुण हैं, थोड़े ही दिनों में उसे धर्म से रुचि हो गई। अब उसे अपनी अवस्था का ज्ञान होने लगा था। विषय-वासना से चित्त आप ही आप खिंचने लगा। ‘पति’ का यथार्थ आशय समझ में आने लगा था। पति ही स्त्री का सच्चा मित्र, सच्चा पथ-प्रदर्शक और सच्चा सहायक है। पतिविहीन होना किसी घोर पाप का प्रायश्चित है। मैंने पूर्व जन्म में कोई अकर्म किया होगा। पतिदेव जीवित होते, तो मैं फिर माया में फंस जाती। प्रायश्चित का अवसर कहां मिलता! गुरुजी का वचन सत्य है कि परमात्मा ने तुम्हें पूर्व कर्मों के प्रायश्चित का यह अवसर दिया है। वैधव्य यातना नहीं है, जीवोद्धार का साधन है। मेरा उद्धार त्याग, विराग, भक्ति और उपासना ही से होगा।

कुछ दिनों के बाद उसकी धार्मिक वृत्ति इतनी प्रबल हो गई कि अन्य प्राणियों से वह पृथक् रहने लगी। किसी को न छूती, महरियों से दूर रहती, सहेलियों से गले तक न मिलती, दिन में दो-दो तीन-तीन बार स्नान करती, हमेशा कोई न कोई धर्मग्रन्थ पढ़ा करती। साधु- महात्माओं के सेवा-सत्कार में उसे आत्मिक सुख प्राप्त होता। जहां किसी महात्मा के आने की खबर पाती, उनके दर्शनों के लिए विकल हो उठती। उनकी अमृतवाणी सुनने से जी न भरता। मन संसार से विरक्त होने लगा। तल्लीनता की अवस्था प्राप्त हो गई। घण्टों ध्यान और चिन्तन में मग्न रहती। सामाजिक बन्धनों से घृणा हो गई। हृदय स्वाधीनता के लिए लालायित हो गया; यहां तक कि तीन ही बरसों में उसने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया।

मां-बाप को यह समाचार ज्ञात हुआ तो होश उड़ गए। मां बोली- बेटी अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है कि तुम ऐसी बातें सोचती हो ।

कैलासकुमारी — माया-मोह से जितनी जल्द निवृत्ति हो जाय, उतना ही अच्छा।

हृदयनाथ-क्या अपने घर में रहकर माया-मोह से मुक्त नहीं हो सकती हो? माया- मोह का स्थान मन है, घर नहीं।

जागेश्वरी-कितनी बदनामी होगी।

कैलासकुमारी — अपने को भगवान् के चरणों पर अर्पण कर चुकी, तो मुझे बदनामी की क्या चिन्ता ?

जागेश्वरी — बेटी, तुम्हें न हो, हमको तो है। हमें तो तुम्हारा ही सहारा है। तुमने जो संन्यास ले लिया, तो हम किस आधार पर जिएंगे ?

कैलासकुमारी — परमात्मा ही सबका आधार है। किसी दूसरे प्राणी का आश्रय लेना भूल हैं।

दूसरे दिन यह बात मुहल्लेवालों के कानों में पहुंच गई। जब कोई अवस्था असाध्य हो जाती है, तो हम उस पर व्यंग्य करने लगते हैं। ‘यह तो होना ही था, नई बात क्या हुई ?’ लड़कियों को इस तरह स्वच्छन्द नहीं कर दिया जाता, फूले न समाते थे कि लड़की ने कुल का नाम उज्ज्वल कर दिया। पुराण पढ़ती है, उपनिषद और वेदान्त का पाठ करती है, धार्मिक समस्याओं पर ऐसी-ऐसी दलीलें करती है कि बड़े-बड़े विद्वानों की जबान बन्द हो जाती है, तो अब क्यों पछताते हैं? भद्र पुरुषों में कई दिनों तक यही आलोचना होती रही। लेकिन जैसे अपने बच्चे के दौड़ते-दौड़ते धम से गिर पड़ने पर हम पहले क्रोध के आवेश में उसे झिड़कियां सुनाते हैं, इसके बाद गोद में बिठाकर आंसू पोंछने और फुसलाने लगते हैं, उसी तरह इन भद्र पुरुषों ने व्यंग्य के बाद इस गुत्थी के सुलझाने का उपाय सोचना शुरू कर किया। कई सज्जन हृदयनाथ के पास आये और सिर झुकाकार बैठ गए। विषय का आरम्भ कैसे हो?

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कई मिनट के बाद एक सज्जन ने कहा-सुना है, डॉक्टर गौड़ का प्रस्ताव आज बहुमत से स्वीकृत हो गया।

दूसरे महाशय बोले- यह लोग हिन्दू धर्म का सर्वनाश करके छोड़ेंगे।

तीसरे महानुभाव ने फरमाया-सर्वनाश तो हो ही रहा है, अब और कोई क्या करेगा ! जब हमारे साधु-महात्मा, जो हिन्दू-जाति के स्तम्भ हैं, इतने पतित हो गए हैं कि भोली-भाली युवतियों को बहकाने में संकोच नहीं करते, तो सर्वनाश होने में रह ही क्या गया।

हृदयनाथ — यह विपत्ति तो मेरे सिर ही पड़ी हुई है। आप लोगों को तो मालूम होगा।

पहले महाशय — आप ही के सिर क्यों, हम सभी के सिर पड़ी हुई है।

दूसरे महाशय- समस्त जाति के सिर कहिए।

हृदयनाथ- उद्धार का कोई उपाय सोचिए।

पहले महाशय- आपने समझाया नहीं ?

हृदयनाथ–समझा के हार गया। कुछ सुनती ही नहीं।

तीसरे महाशय — पहले ही भूल हुई। उसे इस रास्ते पर डालना ही न चाहिए था।

पहले महाशय — उस पर पछताने से क्या होगा ? सिर पर जो पड़ी है, उसका उपाय सोचना चाहिए। आपने समाचार-पत्रों में देखा होगा, कुछ लोगों की सलाह है कि विधवाओं से अध्यापकों का काम लेना चाहिए। यद्यपि मैं इसे भी बहुत अच्छा नहीं समझता, पर संन्यासिनी बनने से तो कहीं अच्छा है। लड़की अपनी आंखों के सामने तो रहेगी। अभिप्राय केवल यही है कि कोई ऐसा काम होना चाहिए, जिसमें लड़की का मन लगे। किसी अवलम्ब के बिना मनुष्य को भटक जाने की शंका सदैव बनी रहती है। जिस घर में कोई नहीं रहता, उसमें चमगादड़ बसेरा लेते हैं।

दूसरे महाशय — सलाह तो अच्छी है। मुहल्ले की दस-पांच कन्याएं पढ़ने के लिए बुला ली जाएं। उन्हें किताबें, गुड़ियां आदि इनाम मिलता रहे, तो बड़े शौक से आएंगी। लड़की का मन तो लग जायगा।

हृदयनाथ- देखना चाहिए। भरसक समझाऊंगा।

ज्यों ही यह लोग विदा हुए, हृदयनाथ ने कैलासकुमारी के सामने यह तजवीज पेश की। कैलासी को संन्यस्त के उच्चपद के सामने अध्यापिका बनना अपमानजनक जान पड़ता था। कहां वह महात्माओं का सत्संग, वह पर्वतों की गुफा, वह सुरम्य प्राकृतिक दृश्य, वह हिमराशि की ज्ञानमय ज्योति, वह मानसरोवर और कैलास की शुभ्र छटा, वह आत्मदर्शन की विशाल कल्पनाएं, और कहां बालिकाओं को चिड़ियों की भांति पढ़ाना। लेकिन हृदयनाथ कई दिनों तक लगातार सेवाधर्म का माहात्म्य उसके हृदय पर अंकित करते रहे। सेवा ही वास्तविक संन्यास है। संन्यासी केवल अपनी मुक्ति का इच्छुक होता है, सेवा-व्रतधारी अपने को परमार्थ की वेदी पर बलि दे देता है। इसका गौरव कहीं अधिक है। देखो, ऋषियों में दधीचि का जो यश है, हरिश्चन्द्र की जो कीर्ति है, उसकी तुलना और कहां की जा सकती है। संन्यास स्वार्थ है, सेवा त्याग है, आदि। उन्होंने इस कथन की उपनिषदों और वेदमंत्रों से पुष्टि की। यहां तक कि धीरे-धीरे कैलासी के विचारों में परिवर्तन होने लगा। पंडितजी ने मुहल्लेवालों की लड़कियों को एकत्र किया, पाठशाला का जन्म हो गया। नाना प्रकार के चित्र और खिलौने मंगाए। पंडितजी स्वयं कैलासकुमारी के साथ लड़कियों को पढ़ाते । कन्याएं शौक से आतीं। उन्हें यहां की पढ़ाई खेल मालूम होती । थोड़े ही दिनों में पाठशाला की धूम हो गई, अन्य मुहल्लों की कन्याएं भी आने लगीं।

कैलासकुमारी की सेवा- प्रवृत्ति दिनोंदिन तीव्र होने लगी। दिन भर लड़कियों को लिये रहती; कभी पढ़ाती, कभी उनके साथ खेलती, कभी सीना-पिरोना सिखाती पाठशाला ने परिवार का रूप धारण कर लिया। कोई लड़की बीमार हो जाती तो तरन्त उसके घर जाती, उसकी सेवा सुश्रुषा करती, गाकर या कहानियां सुनाकर उसका दिल बहलाती।

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